Śrīkoṣa
Chapter 23

Verse 23.45

सप्तदर्भकृतं कूर्चं वास्तुनाथस्य वै हृदि।
निधाय मनसा ध्यायन्नाचार्यस्त्वृत्विजोऽपि वा।। 23.45 ।।